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इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विवेक कुमार और न्यायमूर्ति विकास बुधवार की खंडपीठ ने कहा कि मस्जिद से लाउडस्पीकर का इस्तेमाल मौलिक अधिकार नहीं है।
इरफ़ान बनाम यूपी राज्य में और 3 अन्य 2022 मामलों में कोर्ट ने कहा लाउडस्पीकर का इस्तेमाल मौलिक अधिकार नहीं है। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के2005 फैसले का हवाला देते हुए कहा की इसका कानूनन निपटारा हो चूका है की लाउडस्पीकर का इस्तेमाल मौलिक अधिकार नहीं है।
यह मामला उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के इरफान द्वारा दायर किया गया था, जो जिले के एक गांव में अज़ान, नमाज़ के लिए इस्लामी आह्वान के दौरान, एक मस्जिद से लाउडस्पीकर बजाने की अनुमति चाहता था।
2005 का सुप्रीम केस का निर्णय
फोरम, पर्यावरण और ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम बनाम भारत संघ 2005 मुक़दमा में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि ध्वनि प्रदूषण से मुक्ति संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है।
शोर नागरिकों के शांति से रहने और जबरन उसको सुनने से अपनी रक्षा करने के मौलिक अधिकार में हस्तक्षेप करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि प्राधिकरण से लिखित अनुमति प्राप्त किये बिना लाउडस्पीकर या सार्वजनिक संबोधन प्रणाली का उपयोग नहीं किया जाएगा।
लाउडस्पीकर या सार्वजनिक संबोधन प्रणाली का उपयोग रात में (रात 10.00 बजे से सुबह 6.00 बजे के बीच) नहीं किया जा सकता है लेकिन बंद परिसर जैसे सभागार, सम्मेलन कक्ष, सामुदायिक हॉल और बैंक्वेट हॉल में किया जा सकता है ।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को कुछ शर्तो के साथ , एक कैलेंडर वर्ष के दौरान सीमित अवधि में किसी भी सांस्कृतिक या धार्मिक उत्सव के अवसर पर रात के समय (रात के 10.00 बजे से 12.00 मध्यरात्रि के बीच) लाउडस्पीकर या सार्वजनिक संबोधन प्रणाली के उपयोग की अनुमति दे सकती है , जो कुल मिलाकर एक साल में पंद्रह दिनों से अधिक नहीं होगी ।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी, धर्म या उद्देश्य जो भी हो, "अपने स्वयं के परिसर में भी शोर पैदा करने के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है जो उसके परिसर से बाहर अपने पड़ोसियों या अन्य लोगों को परेशान करेगा"।
अनुच्छेद 21
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है”।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
इसकी स्थापना 17 मार्च 1886 को आगरा में उत्तर-पश्चिमी प्रांत के न्यायिक उच्च न्यायालय के रूप में की गई थी।
इसे 1869 में इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया था।
यह उत्तर प्रदेश का उच्च न्यायालय है
इसकी वर्तमान स्वीकृत संख्या 160 है। यह भारत का सबसे बड़ा उच्च न्यायालय है।
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